वक़्त की लौ
वक़्त की लौ थरथराती रही
घबराती रही, कंपकपाती रही
कोई हाथ न बढ़ा उसे थामने
कोई परवाना न मिटा उसके सामने
वक़्त की लौ थी कि थरथराती रही
लाख कोशिशें की कि सम्भले,
उठे, बच ले
कोई दिल न पिघला
कोई आँख नम न हुई
बस लौ वक़्त की थरथराती रही
कभी चाहा अपने होठों पर
पानी के छीटें मार ले
कभी चाहा ज़िंदगी की भीख माँग ले
पर ज़िन्दगी थी जो बुझती रही
वक़्त की लौ यूँ ही थरथराती रही
घबराती रही, कंपकपाती रही
अँधेरा था जो ख़्वाब से जाग
रौशन हुआ
वक़्त बुझता गया
नब्ज़ गिरती रही
मिटती गई।
नीता पाठक
https://nitapathak1909-hindi.blogspot.com
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