भूख
तालाब के किनारे बैठे-बैठे
कितने ही ख़्वाब बुन डाले थे
अदनी-सी अठन्नी को लेकर
कभी रसगुल्ला,
कभी जलेबी
लेकिन जब मुठ्ठी खोली थी
तो अठन्नी नहीं मिली थी
टटोल डाला था जेबों में
हाथों के बीच की दरारों में
पर अठन्नी नहीं मिली थी
शायद ख़्वाब देखते वक़्त
गिरी थी सूखे पत्तों के तले
कैसे ढूँढू ?
कि इन पत्तों का अंबार है यहाँ
हाय !
मेरे रसगुल्ले और जलेबियाँ
एक-एक पत्ता उलट डाला था
पर अठन्नी नहीं मिली थी
बहुत देर हो गई है शायद
घर जाने पर डाँटेगी मालकिन
आज फिर भूखे पेट सोना पड़ेगा
आखिर मार से कब तक पेट भरूँ ?
मेरे ख़्वाब ! तुम्हीं दोषी हो
तुम्हारे ही कारण अठन्नी गई
तुम्हारी ही वजह से
भूखा सोऊंगा आज भी।
2 टिप्पणियाँ
Beautiful poem
जवाब देंहटाएंVery beautiful poem,telling the reality
जवाब देंहटाएंIf you have any doubts, feel free to share on my email.