दरख़्त
हवा के घोड़े पर सवार
मैं उड़ी जाती हूँ वहाँ
महबूब ने मेरे मिलने का
वायदा किया है जहाँ
रास्ते में देखकर दरख़्तों को
याद आने लगा मुझे
बचपन का वो मंज़र जब
इनके कंधों पर चढ़कर
कितनी ही बार
मैंने आसमान छूने की
कोशिश की थी
कितनी ही बार इसकी
शाखों पर झूली थी
कितनी ही बार
इसने गोद में बिठाकर
मेरे धूप से झुलसते
शरीर को बचाया था
कितनी ही बार
मैंने इसके फल तोड़े
जब कभी मैं उदास हुई
इन्होंने मेरे आँसू पोछे
आज यही दरख़्त
ठूँठ हो गए हैं
मेरे आँसू पोंछने को अब
इनके हाथ नहीं उठ सकते
न ही इनके होंठ
मेरे माथे को चूम सकते हैं
बस अब मैं इन्हें देखकर
यादों में खो जाती हूँ
अरे ! मुझे तो जाना है
महबूब से मिलने का जो
वायदा किया वो निभाना है।
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