बेस्ट हिंदी शायरी
दीवानेपन की हद है
इश्क़ की इंतहा भी
अब तो सनम आ जाओ
क्या लोगे हमारी जां भी
दिल की तन्हाइओं में इक ख़ौफ़- सा बैठा है
तन्हा सफ़र में नामो- निशां न मिट जाए
दीदार-ए- हसरत ही न रही
आँखों की क्या ख़ता
पहचान न सके तुझे
ये है वक़्त की हवा
क्या कहें इस दिल को
जो अब नहीं रहा हमारा
दे दिया था ये जिसको
अब न उसका है न हमारा
सर पे क़फ़न बाँध के
रखकर हथेली पे जां
चले हैं तेरे दीदार को
बसाने दिल का जहां
ग़म को गर्क करने को
क्यों पैमाने भरूँ सागर के
एक क़तरा आँख का जब
लुढ़क कर गाल पे आ गया
शीशी का नशा चढ़ गया
और शिद्दत सो गई
इस ज़मीं से उस फ़लक तलक
मुझे एक ही निशां दिखते हैं
अपने क़दमों के
कर लिया है अपने आप से वायदा
दिखा दूंगी दुनिया को मैं क्या हूँ
यूँ तो हमें यकीन न था
हम भी कुछ कर सकते हैं
तेरी आँखों का इशारा हुआ
और अपनी बात बन गई
ग़म की धूप में
इतनी गर्मी होती है
मुझे मालूम न था
कि ये दिल को
यूं जलाएगी
बिना माचिस के ही
आग लग जाएगी
भटकते रहना इधर- उधर
चलते रहना आठों पहर
उस सफ़र पर जो ख़त्म होता नहीं
मंज़िल कहाँ है पता नहीं
कब तक चलती रहूं
आखिर कब तक?
झुक कर ज़मीं को चूमा
सज़दा किया आसमां का
जब मिल गई मुझको
मेरे मन की मुराद
पहले यहाँ सजती थीं
बारात कभी
आज ये चमन सूना- सा
लगता है
दिल से निकलती है बस आवाज़ यही
तुम ख़ुश रहो आबाद रहो जहाँ रहो वहीँ
ग़ुबार जब उठता है सीने में
दम घुटने लगता है
दर्द की इंतहा बढ़ जाती है
हर चीज़ का वजूद ढक जाता है
इक धुंधली परत में
जब कोई नया ज़ख़्म दे जाता है
रोते हैं वो
आँसू हमारे गालों पर नज़र आते हैं
हँसते हैं हम
आँखों के कोर उनके मुस्कुराते हैं
अल्लाह! ये माज़रा क्या है ?
गिला किससे किस बात पर करें
समझ आता नहीं
इसलिए गिला अपने आप से है
किसी और से नहीं
कोई मेरा ज़ज़्बाते बयाँ नहीं समझता
कहने को सभी अपने हैं
कोई आवाज़ देगा आकर
इस सूने दर पर
इसी उम्मीद में आँखें
बिछाए बैठे हैं
वो चंद चीज़ें जो कभी थीं
जान से ज्यादा प्यारी
वही चीज़ें आज हुई हैं
जानी दुश्मन हमारी
चिराग़ रोशन तभी होंगे
जब दिए में लौ होगी
इस चमन में ग़ुल खिलेंगे
जब दिल में बहार होगी
वक़्त कैसे गुज़र जाता है
मुझको गुमां ही नहीं
इक तेरी कशिश है जो
मुझे ज़िंदा रखे है
कितने वादे कितनी कसमें
किए थे तुमने मिलने पर
लगता है सब भूल गए हो
एक हमसे बिछड़ने पर
मैंने तो चाहे थे प्यार के दो बोल
बदले में ज़माने से काँटे मिले
दिल के मकान पर
दस्तक देता है कोई
आवाज़ दूँ याकि
चुप रहूँ
नहीं जाना था कहाँ है मंज़िल
जब आँख खुली थी तुम्हें पाया
जिग़र से टपका था लहू मेरे
जब जुदाई का वक़्त आया
किन लफ़्ज़ों में बयाँ करूँ
इस ज़ख़्मी दिल को
जिससे खून नहीं
आँसू टपकते हैं
चमकते तारों को गिनने की चाह में
रात सारी कट गई
मग़र न मिला कोई तारा
मिली सिर्फ़ स्याही
वफ़ा-ए-मोहब्बत मिली न हमको
बदले में उसके वहशत मिली
चाहा पलभर देख लूँ उसको
कम्बख़्त ये भी न मोहलत मिली
हम चले थे इस क़फ़स से
आशियाँ की तलाश में
मगर इस ज़बीं पर हमें
हमें अपनी हस्ती मिटती नज़र आई
दीवानो की भी क्या ख़ूब हस्ती है
जो मरने के बाद भी नहीं मिटती है
सबकुछ पढ़ लिया है
इक तेरी नज़र को पढ़ने के बाद
अब किताबों की है
किस कम्बख़्त को ज़रूरत
जिस्म बेजान है तेरी जुदाई से
नादान लोग हमें पत्थर कहते हैं
बेहिसाब ज़िन्दगी मेरी ख़ौफ़ में डूबी हुई
ज़िगर के ख़ून से लिखी मेरी तक़दीर गई
अब तो इतना भी ख़ून नहीं है सीने में
जो दिल के धड़कने की भी उम्मीद हो
सदियाँ गुज़र गई हैं इस दर्द को सहते- सहते
दर्द को अब दर्द नहीं हम दवा कहते हैं
हर शख़्स में इतनी ताकत नहीं
जो अपनी तक़दीर को बदल सके
जिसने ये काम कर दिखाया
वही ख़ुदा बन गया
कभी झटक के दामन चले गए थे तुम
तब मेरी उम्मीदों ने कफ़न पहन लिया था
अब तुम जब वापस आ गए हो
लगे जैसे सैकड़ों चिराग़ जल गए हों
कभी वायदा किया था ख़ामोश रहने का
अब तो बोलना भी भूल गए हम
कभी न हंसने का वायदा किया था
अब तो हंसना भी भूल गए हम
तुम जो दुनिया भूलने को कह दो
दुनिया को भी भूल जाएंगे हम
पर इतना वायदा करते जाओ
हमें न भूल जाओगे तुम
मोहब्बत होती है
आँखों का धोख़ा
दिल का फ़रेब
ये जज़्बा हर शख़्स में पलता है
मगर कोई इसे माथे पर
औ कोई पांव पर रखता है
तल्खिए- मोहब्बत एहसास के रंग में
कुछ इस कदर उतरी
यक़ीन उठ गया मेरा वफ़ादारी से
1 टिप्पणियाँ
Wow! Awesome!
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