बेहतरीन कविताएँ
... अभी बाकी है
गुज़र गया है तूफ़ान
ग़ुबार अभी बाकी है
झड़ गए हैं पत्ते
ठूंठ अभी बाकी है
बुझ गए हैं चिराग़
रात अभी बाकी है
खाई थी जो कसम
निभाना अभी बाकी है
ख़त्म हुई है शीशी
पैमाना अभी बाकी है
आ गए हो तुम
फिर क्यों
इंतज़ार अभी बाकी है ?
ग़म
ग़म असीम असार है
आसमान की तरह
जिसका छोर कहाँ है
कौन जानता है
यह धरती के एक कोने से
दूसरे कोने तक
फैला हुआ है
एक ही रंग में
मेरी दुनिया से
तुम्हारी दुनिया तक।
मेरा फ़साना
वो रात ने देखा है
शमां का जलना औ
मेरी भटकती आँखें
जैसे कि अँधेरी रात में
एक यतीम जुगनू
साथी की तलाश में
आसरे के लिए।
अजीब ख़्वाब
कब वो ख़्वाब सुहाना
मुझे याद नहीं
याद है सिर्फ़ इतना
कि अब कुछ याद नहीं
फिर भी ये आरज़ू है कि
वैसा ख़्वाब मैं फिर देखूँ
लेकिन ये भी जुस्तजू है कि
मुझे फिर याद न रहे
और
फिर मैं इस ख़्वाब को
देखने की ख़्वाहिश करूँ।
मेरी ज़िन्दगी
ग़ुमनाम अफ़साने की मिल्कियत
जिसकी बादशाहत भी मेरी है
और गुलामियत भी
जो मुझ तक ही सीमित है
और मुझ पर ही ख़त्म।
दिले हाल
शब्द ख़ामोश हो जाते हैं
आँसू भरी निग़ाह
उठाकर देखते हैं सवाल को
जो उन्हें गहरी चोट पहुँचाता है
स्याही की ज़ुबाँ रुक जाती है
थरथराते लफ़्ज़ निकल नहीं पाते
मगर फिर भी
काग़ज़ पर उतरने को
मचल उठते हैं सभी
और पहुँच जाना चाहते हैं
न मालूम कहाँ
शायद वहाँ, जहाँ
अजनबीपन है
औ अपनापन भी
एक प्यास है
नया एहसास भी।
धोख़ा
जो तेरे लिए आँखें बिछाए रहती थीं
सामना हो गया है मेरा बेवफाई से
जो तेरी वफ़ा के सज़दे किया करती थीं
मैंने समझ लिया है दुनियादारी को कि
क्यों मेरी भावनाएं कुचला करती थीं
अब फिर वही ग़लतियाँ न करुँगी
जो पहले मैं किया करती थी
चलो अच्छा हुआ हमको
ये भेद मालूम तो हो गया।
अपनी मंज़िल
चलते- चलते जब रुके कदम मेरे
मंज़िल को फिर भी न पाया
थककर बैठी छाँव में
सहलाया पाँव के छालों को
दी दिलासा साँसों को
पूछा साँसों ने
और कितनी दूर
भटकना होगा यूँ ही ?
तड़पकर कहा छालों ने
चलते चलो कुछ देर यूँ ही
जब तक मंज़िल न मिले
फिर रुककर दम लेना
और फिर चलना
मंज़िल की ओर
कभी तो मिलेगी
अपनी भी मंज़िल।
क्षितिज
किसी ने तो देखा होगा
देखा होगा किसी ने
दिन औ रात को मिलते
पर हमें मिलते कभी
किसी ने नहीं देखा
नदी के दो किनारों की तरह
जो सामने रहते हुए भी
कभी नहीं मिलते
बेबस निग़ाहों से देखते हैं
एक दूसरे को और
तसल्ली कर लेते हैं
धरती औ आसमां के
संगम को देखकर।
वक़्त
ख़िज़ाँ में बहारों का समां होता
कली हर फ़ूल से मुस्कराकर कहती
ए शोखे बदन ! इतना न इतरा
कल तेरी जगह होगा मेरा तन
फ़ूल भी हंसकर कहता कलि से
ओ कमसिन सुन !
मेरी जगह कल तेरी है
फिर किसी और की बारी है
काश !
कुछ ऐसा ही होता
ख़िज़ा के बाद ही सही
बहारों का समां आया तो होता
ए काश !
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