दिल का लहू
इलाही ! क्या ये ग़म है उम्र भर के लिए ?
मैं कब से जाग रही हूँ बस एक सहर के लिए
दिल आज उनके दीदार ही को तरसता है
उन्हीं के ग़म में लहू आँख से बरसता है
शरीके हाल जो बने थे उम्र भर के लिए
मैं कब से जाग रही हूँ बस एक सहर के लिए
मेरे ही दम से थी आबाद रहगुज़र उनकी
मेरी तरफ़ नहीं उठती है अब नज़र जिनकी
जहां को छोड़ दिया जिस हमसफ़र के लिए
मैं कब से जाग रही हूँ बस एक सहर के लिए
मैं कब से जाग रही हूँ बस एक सहर के लिए
ये इल्तज़ाह है कि अब उम्र मुख़्तसर कर दे
मैं इस रात को न देखूँ वही सहर कर दे
इलाही ! क्या ये शबे ग़म है उम्र भर के लिए ?
मैं कब से जाग रही हूँ बस एक सहर के लिए
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