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Ultimate हिंदी शायरी- 2024





Ultimate हिंदी शायरी- 2024

 

पीते तो यूँ भी थे रोज़ मैख़ाने में

पर मज़ा कुछ और है मुफ़्त के पैमाने में

 

 

कोई तस्वीर जो कर सकती

इकरारे मोहब्बत

दूरियों का ग़म फिर किसको सताता

 

 

ख़ामोश निग़ाहों का कुछ न कहकर भी कह जाना

है दस्तूर से हटकर पर, है दस्तूर मोहब्बत का

 

 

अर्ज़ है कोई शेर मुझको सूझता नहीं

मैं कलम तोड़ूँ या कि स्याही पी जाऊं

 

 

जो कल था वो आज नहीं

जो आज है वो कल नहीं

पर एक चीज़ रहेगी सदा

दिल और मोहब्बत

 

 

यूं तो हमें यकीन न था

हम भी कुछ कर सकते हैं

तेरी आँख का इशारा हुआ

और अपनी बात बन गई

 

 

एक शायर ने शे'र लिखा

दुनिया जिसे समझ न सकी

इसमें क्या ख़ता शायर की

ख़तावार तो उसकी लिखावट थी

 

 

क़र्ज़ तेरा उतर न सकेगा इस जनम में मगर

कोशिश ये है की मूल न सही ब्याज ही चूका दूँ

 

 

खुदा ने चाहा ज़मीं पर भी इक खुदा रहे

इसलिए उसने तुम्हें बनाया

तुम हो तो हमें खुदा पर यकीन है

वरना कबके हम भटक गए होते

 

 

हमारी मोहब्बत पे हंसती है दुनिया

ज़माने के कहे चलें तो जान ही गँवा बैठें

 

 

मेरी शख़्सियत में बहुत- सी शख़्सियतें हैं

जिन्हें कोई नाम देना आसान नहीं

नाम दूँ भी तो क्या -

शमाँ, फ़ूल या परवाना

 

 

आपको देखकर न ये बेचैनियाँ बढ़ी हैं,

न ये अरमान

ये तो उस जादू का असर है

प्यार क्या इतना सर चढ़कर बोलता है ?

 

पासा कैसे पलट जाता है ?

किसी की दुनिया खो जाती है

किसी को दुनिया मिल जाती है

 

सोना, जागना, खाना, पीना

उम्र इसी में बीत गई

ज़िन्दगी किसको कहते हैं ?

 

चले जा रहे हैं दिल को संभाले

वो दिल जीत लाए

हम जान हार बैठे

 

यूँ भी कभी कोई कुछ खोता है

सब पाकर भी सब खो देता है

मैंने क्या-क्या खोया ?

 

जी चाहे यहीं बैठी रहूँ उम्र भर

और उम्र गुज़रे तो फ़ना हो जाऊँ

जन्नत क्या इसी को कहते हैं ?

 

दुनिया जब ज़ुल्म करे

तो बारिश हो

आँखों को इतना हक़ तो है

 

ये ख़्वाब है या हक़ीक़त

तुम पास बैठी हो

मेरा हाथ थामे

 

ये किसकी नज़र का असर है

ये किसके हाथों का जादू

जिसके अहसास से मैं

यूँ बेहिस हुई जाती हूँ

 

 

मेरी नज़रों में इक तस्वीर झलकती है

देखो तो सही कहीं ये तुम्हारी तो नहीं

 

 

तेरी आँखों ने मेरी नींदें उड़ाई

तारों को गिनने की सजा मुझे क्यों

 

 

आओ इस तरह ये दूरियाँ मिटाएं

ज़माने की दीवार में इक खिड़की बनाएं

 

दर- ब- दर ढूंढा किए आपको मगर

पाया तो अपने ही पहलू में

 

जिसको न हो ख़ौफ़-ए-ख़ुदा

वो बुत है याकि खुद है ख़ुदा

फिर नया उजाला

एक नया नूर लेकर

आया है कोई

खुशियाँ हज़ार लेकर

ख़ुदा ! कैसे समेटूँ इन्हें

के मेरा दामन छोटा है

 

मैं तो कारवां लिए चलती हूँ हर सफ़र-मंज़िले मगर

लोग साथ छोड़ जाते हैं करने को तन्हा मेरी रहगुज़र

 

 

वो हम से पूछते हैं हमारी तबाहकारियाँ

बस में होता तो दिल निकालकर दिखाते

 

ऊंचे चश्म से गिरकर पानी

पत्थरों में सूराख कर देता है

क्या यह भी तुम्हें मालूम है कि

पत्थरों ने कितने सिरों में सूराख किए हैं

 

जो सपनों में चाही थी बहार

वो हक़ीक़त में खो दी

जो हक़ीक़त में बहार मिली

वो सपनों में भी न सोची थी

 

किसी की फ़ुर्क़त में जीना रात दिन

या कि मर जाना

है तो गवारा मुझे मगर

सबकुछ भूलकर नहीं

 

नश्तर-सी निगाहों से न देखिए

हमारे ज़ख्म जल्दी भरते नहीं

 

अम्ल-ओ-ज़ुबां का रिश्ता निभाया होता

तो दीवारो- दर क्यों कर न हँस उठते

 

मैं, तुम और हमारी कहानी

है सिर्फ़ इतनी, कि कुछ है ही नहीं

 

 

मोहब्बत कुछ इस कदर झुलसी

क़ब्र पर ज्यूँ नाम रह गया हो

बोतल ज्यूँ खाली हो गई हो

पैमाने में इक जाम रह गया हो

 

आज तुमने जो कहा सो कहा

मगर ये फिर कभी न कहना

मेरी जान ग़र गई तो

ज़िम्मेदारी तुम्हारी होगी

 

आज दिल की ज़मीं पर

इक नयी फ़सल उगी है

जो वक़्त की हवा से

लहलहा रही है

 

 

जो खो गया है पल उसे मत ढूंढो

जो पास मिला है उसे संभालो

ऐसा न हो की एक को ढूढ़ने में

मिली हुई चीज़ भी खो जाए

 

बनाकर मुक़्कद्दर तुम तो खुदा हो गए

हमारी बेबसी पर क्या रोने का भी हक़ नहीं

 

पीछे मुड़कर देखूं इतना तो वक़्त नहीं

आगे के ख़्यालों में ही डूबी रहूं

ये भी तो ठीक नहीं

 

रुक कर अगर पीछे देखा

तो मेरा आज खो जाएगा

दौड़कर जो वक़्त को थामा

तो कल संवर जाएगा

 

 

मुट्ठी भर धूल काफी है ख़ाके- बदन के लिए

फिर क्यों इकठ्ठा करूँ दुनिया की सहूलियतें

 

 

ज़ख़्म जब फूटते हैं

दर्द का लावा बनकर

नश्तर से चुभते हैं

दिल में रह- रहकर

 

सुनते आए हैं की शमां हर रंग में

जलती है सहर होने तक

जो शमां सहर से ही जलने लगे

वो जलेगी कब तलक

 

 

मालूम न था यूँ भी कभी चले जाएंगे ज़माने से

किसी को पता भी न चलेगा हम नहीं रहे ज़माने में

 

 

कहाँ भूल हुई जिसकी सज़ा

आज तक मिल रही है मुझे

शायद मैं जानती हूँ कहाँ

 

 

ज़माने के काँटों पर घायल हुए मेरे पाँव

फूलों के रास्ते पर चलना चाहते हैं मगर

रास्ता सिर्फ़ एक ही अंगारों का

 

 

मेरे मुक़्क़दर पे लिखे हर लफ्ज़ को सलाम

मैं जो हूँ औ जो तुमने बनाया उसे सलाम

मैं न रोऊँ, न कोसूं तुम्हें, मुझको मिली

तुझ से ही इस क़ुव्वत को सलाम

औरों के दुःख में बहें जो आंसू मेरे

उन आंसू की धाराओं को सलाम

 

 

ग़ुलामी की बेड़ियाँ घायल हाथ-पाँव में पड़ी

उस शख़्स के इरादों को कमज़ोर कर सकेंगी

ये कहना मुश्किल है

हो सकता है वह शख़्स बेड़ियों को तोड़

अपनी तक़दीर कुछ और तरह बना ले

 

 

 

 

 

 

 


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