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अब्रों का ग़म

अब्रों का ग़म

 

काले अब्रों को जाने क्या ग़म था

या शायद मेरे ग़म पर रो रहे थे

इन्हें देख-देख मेरा ग़म बढ़ रहा था

मैं ख़्यालों की नदी में डूबती- उतराती

कहाँ से कहाँ पहुँच गई थी

सहराओं और कोहसारों को फलाँगती

कहीं से कहीं जा पहुँची थी

अनजाने फ़लक, अजनबी लोग

खूबसूरत नए जज़ीरे पर

जहाँ नीली-पीली झीलों में

कंवल के फ़ूल उगे थे

सब्ज़-सब्ज़ पहाड़ों के दामन में

चांदी जैसे पानी के झरने बहते थे

जहाँ की हवाएँ खुशबू बिखेरती थीं

वहीँ खड़े-खड़े मैं मंज़र में खोई हुई

ललचाई नज़रों से हर नज़ारे को

अपनी आँखों में क़ैद कर रही थी

तभी मैंने प्यार का पाक़ीज़ा ख़्वाब देखा

जो पल भर में ही फ़ना हो गया

इसलिए अब इन अब्रों के अश्क़ देख

मुझे मेरा ग़म याद आता है।








 

 


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