हमजोली
चटखती धूप में नंगे सिर नंगे पाँव
झुलसता हुआ बदन लिए
सुनसान सड़क पर
एक काली सियाह छाया
दौड़-दौड़कर छाँव में कदम रखती
कभी दम भरने पेड़ के नीचे रुकती
किसी की तलाश में निकली है
घर से फ़ैसला करके कि
बिना पाए उसे वापस न जाएगी
वो क्या लगता है उसका ?
किसके लिए तकलीफ़ें सह रही है ?
कभी किसी परिंदे से पूछती
क्या तुमने उनको देखा है ?
और आगे बढ़ जाती है
वो काली सियाह छाया
जो हर पल मेरे साथ रहती है
मेरी हमजोली तो नहीं ?
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