सिसकियाँ
रात हिचकियाँ लेती रही
जाने चाँद ने क्या कह दिया
जो दर्द की बरसात होती रही
इस दर्दीले मंज़र में
कोई है जो हँसता है
हंसकर फिर रो देता है
शायद मोहब्बत का मारा है
जिससे दुनिया रूठी रही
इक साया-ए -हुस्न हर सूं
पलकों से ग़म चुनती रही
जब कभी हवा दामन थामने बढ़ी
क़िस्मत उसकी ठोकर खाती रही
हर नज़र में आज काँटे भरे हैं
कोई सवाबी ज़ख़्मी होती रही
सारे मंज़र पशेमां हो गए
हर रौशनी मुँह छिपाती रही
तारे सिसकते रहे
रात हिचकियाँ लेती रही
जाने चाँद ने क्या कह दिया
जो दर्द की बरसात होती रही।
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